manjil
और बिना सोचे समझे,हम किधर जा रहे है।
ये कौनसा शहर है जाने,कौनसी गली है,
जो इतनी बेफिक्री से,हम चले जा रहे है।
क्या पाना है मुझको,किस चीज की तलब है
जो जबरन ही मुश्किलों से,हम टकरा रहे है।
अजीब सी है राहें ,और अनजान सा सफर है,
इन अजनबी सी राहों में बस चले जा रहे है।
कही मुड़ना न पड़े वापस,अब इतनी दूर आकर,
छोटी छोटी पगडंडियों से,हम जिधर जा रहे है।
हां मुझे शायद बेहतर,कल की ख्वाहिश है,
जो रफ्ता रफ्ता जिंदगी,हम तेरी ओर आ रहे है।
@साहित्य गौरव
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