लोकतंत्र पर कविता,Democracy Poem - Zindgi ek kavita

लोकतंत्र पर कविता,Democracy Poem

Democracy/लोकतंत्र

ज़िंदगी एक कविता

ज़िंदगी एक कविता

सत्ता बिक गई अब सवाल बिक रहे,
अच्छे दिनों के बेगजब कमाल बिक रहे।
बिक रहा है देश का पुर्जा पुर्जा जोरों से,
कल शिक्षा बिक गई अब अस्पताल बिक रहे।
….अच्छे दिनों के बेगजब कमाल बिक रहे ।

खुद ही खुद को बेचने के खयाल बिक रहे,
दल बदल के नेता जी,हरहाल बिक रहे।
घात लगा कर बैठे थे जो मौके की आस में,
वो कल न बिक सके तो फिलहाल बिक रहे।
….अच्छे दिनों के बेगजब कमाल बिक रहे।

रोज गिर रहा है रुपया,टकसाल बिक रहे,
फकीरों की झोली से कीमती माल बिक रहे।
मचा रखी है खूब चोरी मजहब के नाम रहे,
कुर्सी की लालच रोज नए नए दलाल बिक रहे।
….अच्छे दिनों के बेगजब कमाल बिक रहे।

बेरोजगार माई के शिक्षित लाल बिक रहे,
लिए ख़ाब नौकरी का फटे हाल बिक रहे।
रह गया क्या बाकी अब और बिकने का,
इन दिनों दिन दहाड़े परीक्षा हॉल बिक रहे।
….अच्छे दिनों के बेगजब कमाल बिक रहे ।

बुजुर्गों के कमाए,पचहत्तर साल बिक रहे,
उम्मीदों के आशियाने बहरहाल बिक रहे।
जो आए थे सरकार में बड़े शरीफ बन कर,
सब देखते ही देखते नमकहलाल बिक रहे।
….अच्छे दिनों के बेगजब कमाल बिक रहे।

@साहित्य गौरव


Zindgi Ek Kavita 

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