चार कंधे कविता, four men
जिंदगी एक कविता
बस चार है कंधे चार है लोग,
बाकी के सब बेकार है लोग।
कुछ आगे है कुछ पीछे है,
मतलब के साझेदार है लोग।
....बस चार है कंधे चार है लोग,
कुछ पैदल है,कुछ गाड़ी पर
अपनी अपनी सवार है लोग।
चिता पर मुझको लेटाने को,
बैठे कबसे तैयार है लोग।
....बस चार है कंधे चार है लोग,
कुछ छूट गए है कुछ आने के,
रिश्ते के रिश्तेदार है लोग।
जो चुका ना पाए जीते जी,
चुका रहे आज उधार है लोग।
.....बस चार है कंधे चार है लोग,
आंसू बहाते घड़ियालों के,
वो मंझे से कलाकार है लोग।
सजा दो मुझको दूल्हे सा,
बस आज के खिदमतदार है लोग।
....बस चार है कंधे चार है लोग,
उठा लो मुझको जल्दी से,
करने लगे अब इंजतार है लोग।
आंगन में थोड़ी भीड़ है बस,
पर गली में खड़े हजार है लोग
....बस चार है कंधे चार है लोग,
@साहित्य गौरव
Jindgi ek kavita
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