मजदूर मां, majdoor kavita - Zindgi ek kavita

मजदूर मां, majdoor kavita

मजदूर एक मां, majdoor maa

ज़िंदगी एक कविता

zindgi ek kavita


सिक रही है धूप मे जिस्म जला रही है,
जिंदगी की आग में खुद को तपा रही है।
मजबूर है आज कितनी मजदूर एक मां,
दूध नही वो अपना पसीना पीला रही है।

बांध कर आंचल में मुझको,अपनी पीठ पे,
सिर पर भारी ईंटो का बोझा उठा रही है।
कही कमी न पड़ जाए,कल रोटी की मुझे,
खुद पेट अपना काट कर पैसे कमा रही है।

मन को तस्सली देती हुई आज तंगहाल में,
मुझे देख देख कर वो अब भी मुस्कुरा रही है।
जैसे अपने आप की उसे कोई फिकर ही नही,
वो तो अपनी ममता का बस फर्ज निभा रही है।

@साहित्य गौरव


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